परदे के पीछे हमारे मनोंरजन की कमान संभालने वाले गुमनाम हीरो……..

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    विविध / अगर आपने कभी किसी सिंगल स्क्रीन थियेटर में कोई फिल्म देखी हो तो आप को आज के मल्टीफ्लेक्स और सिंगल स्क्रीन थियेटर का फर्क जरूर पता होगा पहले जब कोई नई फिल्म आती थी तो शहर में महीनो पहले से ही उसके पोस्टर लगने शरू हो जाते थे,

    जिन्हे देख मन में फिल्म देखने की इच्छा जागती थी,फिल्म देखने के लिए मन उल्लासित हो जाता था फिर तय होता था, कि फलां फिल्म को देखना है, लेकिन घर से बकायदा इजाजत लेकर ही फिल्म देखी जाती थी,सिनेमा घरों में लंबी लंबी लाइन टिकट के लिए मारा मारी, ब्लैक में टिकेट खरीदने का जुगाड़, पुलिस का डंडा ले के भीड़ को खदेड़ना,

    सिनेमा हाल मे शो केस में लगे लॉबी कार्ड पोस्टर को देखना, थियेटर में प्रवेश पाने के बाद मन बहुत आनंदित हो जाता था,कुर्सी पर बैठने के बाद फिल्म शुरू होने का इंतजार रहता था, सबकी नजर पूरे थियेटर में घूमकर कर परदे पर आकर रूक जाती थी, स्लाइड वाले विज्ञापन जहाँ उत्पादों का प्रचार करते थे, वही कुछ कुछ सामाजिक विज्ञापन हमें सजग भी करते थे,

    उस वक्त भीमकाय प्रोजेक्टर मशीन के माध्यम से सिनेमा हॉल में फिल्में दिखाई जाती थी, लेकिन जो मजा इस प्रोजेक्टर पर फिल्म देखने का था, इसके मुकाबले मे आज के डिजीटल प्रोजेक्टर एक प्रतिशत भी नहीं है,टाकीज के ऊपर बॉक्स या बालकनी के ऊपर छोटा सा कमरा होता था, जिसमें ऑपरेटर द्वारा यह प्रोजेक्टर मशीन चलाई जाती.,

    आमतौर पर 500 से 1200 सीट की क्षमता वाले इन सिंगल स्क्रीन थियेटर में पूरी 3 घंटे की फिल्म को ठीकठाक दर्शको दिखाने का पूरा दारोमदार सिर्फ ‘प्रोजेक्टर मेन ‘ पर होता जिसका कार्य सबसे कठिन होता था ,मामूली से वेतन में सिनेमा का प्रोजेक्टर चलाने वाले अपना काम बेहद बुरे हालातो में भी ईमानदारी से करते थे,

    आज हम उन गुमनाम ‘प्रोजेक्टर ऑपरेटर्स ‘ की बात कर रहे है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन सिनेमा हॉल्स के प्रोजेक्टर रूम के छोटे से रूम में खपा दिया,सिनेमा के परदे पर न जाने कितने बड़े बड़े सितारों का उदय और पतन इन्होने बेहद करीब से देखा होगा, फिल्मो के कलाकारों की मदद के लिए के लिए तो न जाने कितनी संस्थाए काम करती है, लेकिन इन ‘प्रोजेक्टर ऑपरेटर्स के हालातो की सुध किसी ने नहीं ली, ऐसे प्रोजेक्टर ऑपरेटर्स को लाइसेंस प्राप्त करना होता था, तभी वो नौकरी कर सकता था,

    किसी फिल्म को सुचारु रूम से चलाने के लिए प्रोजेक्टर रूम में प्रोजेक्टर ,स्पूल ,आर्क लैम्प ,एम्पलीफायर,बैफिल ,सिनेमा स्कोप लैंस निगेटिव और पॉजिटिव, कार्बन रॉड,रिवाइंडर आवशयक उपकरण होते थे, इन्हे इस्तेमाल करने के लिए प्रोजेक्टर मेन का पूर्ण रूप से दक्ष होना जरुरी होता था,

    एक पूरी पिक्चर में कम से कम 16 फिल्म की रील रहती थी, एक रील जैसे खत्म होती थी वैसे ही दूसरी मशीन में दूसरी रील चालू कर दी जाती थी, बीच में फुट चैंजर होता था, जब दुसरी मशीन चालू हो जाती थी, परंतु सामने परदे पर पता नहीं चलता था और आपको भी अंदाजा नहीं होता कि रील बदल गई है,

    आपको पता है जब एक शहर में एक फिल्म तीन-चार सिनेमा घरों में लगती थी,, तब केवल एक या दो रीलो का सैट मंगाया जाता था, और यही दो सेट हर सिनेमा घर में एक रील के अंतराल में घूमते रहते थे, एक सिनेमा हॉल से दूसरे सिनेमा हॉल आधे घंटे के बाद पिक्चर चालू होती थी, एक सिनेमा हॉल दूसरे सिनेमा हॉल से आपसी सामंजस्य से समय निर्धारित करता था दोनों सिनेमा घर का टाइमिंग में लगभग आधे घंटे का अंतर जरूर रहता था,

    इस बीच एक आदमी रील के डिब्बे को यहां से वहां पहुंचाने का काम करता था, 90 के दशक तक आप दिल्ली के चांदनी चौंक के भागीरथी प्लेस में दिहाड़ी मजदूरों को तेज़ी के साथ एक सिनेमा घर से दूसरे सिनेमा घर में रील की लकड़ी की पेटिया सर पर उठाये भागते देख सकते थे, आमतौर पर इनमे से एक पेटी का वजन 20 किलो से ज्यादा होता था,

    ज़ब शुक्रवार को कोई नई फ़िल्म आती थी पैसे बचाने के चक्कर में एक सिनेमा हाल से दूसरे हॉल तक भगदड़ मची होती रहती थी, ये पेटी वाले मुझसे कई बार चलते चलते टकराये है आमतौर पर सिनेमा प्रोजैक्टर में दो तरह की फिल्में चलाई जाती थीं 35‌ mm और 70‌‌mm इसके लिए परदे का आकार भी अलग होता था,

    70 mm परदे पर पूरी फिल्म आती थी, लेकिन जब 70 mm के परदे पर मजबूरी में कोई 35 mm की फिल्म चलाई जाती थी, तो दोनों साइड से परदा खाली रहता था, 35 mm के परदे पर 70 mm फिल्म नहीं चलती थी ,बड़े सिनेमा घरो में तो दो या तीन प्रोजेक्टर होते थे, जिनपर रील बदल बदल कर फिल्म दिखाई जाती थी, लेकिन जहाँ छोटे सिनेमा घर होते थे वहाँ एक ही प्रोजेक्टर होता था, यहाँ प्रोजेक्टर चलाने वाले को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती थी बड़ी सजगता से एक रील के ख़त्म होने पर दूसरी रील चलानी पड़ती थी, ताकि दर्शको के फिल्म देखने में कोई व्यवधान न पड़े,

    सिंगल प्रोजेक्टर मशीन में अक्सर फिल्म जरूर रूकती थी, फिल्म के बीच जब रील टूट जाती तो लोग ऑपरेटर पर नाराज होते और अपशब्द भी बोल देते थे फिल्म रुकने पर सबसे ज्यादा गालियाँ सिनेमा हाल के इसी ‘प्रोजेक्टर मेन ‘के हिस्से आती थी,लेकिन फिर भी कभी कभी कार्बन आ जाने से रील के आगे अँधेरा आ जाता था या रील टूट जाती थी तो पूरे सिनेमा हाल में एक ही आवाज़ आती थी,फिल्म काट ली ….सा…. ने ……

    हममें से कभी भी किसी ने इस ‘प्रोजेक्टर मेन ‘ के उन हालातो को नहीं देखा जिससे ये जूझते हुए यह आप का और आपके परिवार का मनोंरजन करते थे,टाकीज में बॉक्स या बालकनी के ऊपर कमरा होता था, जिसे प्रोजेक्टर रूम कहा जाता था यही से फिल्म चलती थी इसमें मे बहुत और उमस गर्मी होती थी, उस ज़माने में ऑपरेटर द्वारा जो मशीन चलाई जाती थी उन मशीन में रोशनी से पिक्चर बनाने हेतु बल्ब नहीं होता था,

    ये मुख्यता कार्बन वाली मशीन थी कार्बन नेगिटिव पॉजिटिव के स्पार्क से रोशनी बनाता है,उसमे तो कई मशीनों में कार्बन चलाने वाला मोटर नही लगा होता है, इसलिए उन्हें कई बार हाथ से भी ऑपरेटिंग करना पड़ता था उस ज़माने में Ac कम हुआ करते थे, इस मशीन में फिल्म चलने से आर्क लैंप की गर्मी से बुरा हाल हो जाता था, गाँव देहात के छोटे सिनेमा घरो में तो हाल और भी बुरा होता था,

    गर्मी से बेहाल ऑपरेटर कमीज निकाल कर सिर्फ बनियान पहनकर अपने काम को अंजाम देता था,मध्यांतर में जब आप आराम से पॉपकॉर्न कोल्डड्रिंक्स पीते हुए कुछ देर रिलेक्स करते है,तो मात्र 10 मिनट के इंटरवेल में ढेरो कमर्शियल विज्ञापनों को एक छोटे स्लाइइड प्रोजेक्टर के माध्यम से दिखाने की जिम्मेदारी भी यह ऑपरेटर्स ही निभाते है,

    जब आखरी शो के बाद दर्शक अपने घरो की की और रुख करते थे, तब भी प्रोजेक्टर ऑपरेटर की डूयटी चालू रहती थी, आखरी शो के बाद यदि अगले दिन के पहले शो में कोई 35 mm की फिल्म की जगह सिनेमा स्कोप फिल्म रिलीज़ होनी है, तो ऑपरेटर को उसी रात पहले 70 mm लेंस प्रोजेक्टर में लगा कर फिल्म को चला कर परदे पर सेट करना पड़ता था,

    ताकि दूसरे दिन पिक्चर दिखाने में कोई दिक्कत नहीं आए अक्सर किसी फिल्म की रिलीज़ से पहले या बाद में भी सिनेमा स्टाफ ,प्रेस के लिए आखरी शो के बाद भी एक स्पेशल शो रखा जाता था, यहाँ भी प्रोजेक्टर ऑपरेटर को फिल्म चलाने के लिए रुकना पड़ता था, तब कही जाकर उसे घर जाने की छुट्टी मिलती थी,

    पुराने प्रोजेक्टर में इलेक्ट्रोड जलते थे, जिससे तेज चमकदार रोशनी होती थी, कार्बन स्टिक बुझने ना पाए ,कार्बन स्टिक को जलाए रखना अपने आप मे एक चैलेंज हुआ करता था, शायद कुछ लोग होंगे जिन्हें ये पता होगा कि जो ऑपरेटर फिल्म चलाते थे है उनकी आंखे जल्दी खराब होती है,

    मशीन से निकलने वाली यह तेज रोशनी ऑपरेटर की आंखों पर बुरा असर डालती थी, प्रोजेक्टर में शक्तिशाली प्रकाश बिम्ब बनाने के लिए कार्बन की छड़ों का प्रयोग किया गया था, इन छड़ों को जलाने से काफी प्रकाश और धुआं उत्पन्न होता था जो प्रोजेक्टर से जुड़ी चिमनी तक जाता था, उस छोटे से कमरे में होने वाला प्रदूषण कर्मचारी के लिए अभिशाप से कम नहीं होता था,

    परदे पर जिस रंग बिरंगी रोशनी देखकर आप रोमांचित हो जाते थे, वह रोशनी तेज़ आर्क कार्बन के जलाने से पैदा होती थी, जिससे कार्बन मोनो ऑक्साइड जैसी जहरीली और खतरनाक गैस निकलती थी, जो कि स्वास्थ के लिए बेहद हानिकारक होती थी, जिससे बचने के लिए अधिकतर ऑपरेटर तम्बाकू या बीड़ी ,सिगरेट का उपयोग करते थे, दोनों ही परिस्तिथियों में ऑपरेटर का ही जीवन दाँव पर होता था, मशीन चलाने वाला कर्मचारी जीवन के आखरी समय सांस की बीमारियों (दमा) से त्रस्त हो जाता था,

    .उस वक़्त फ़िल्म का रील नार्मल होता था फिर 90 के दशक के बाद पोलिस्टर रील आने लगी था, लेकिन इनके प्रोजेक्शन से जो गर्मी और धुआँ पैदा होता था, वो भी बेहद खतरनाक होता था जो तपेदिक जैसी बीमारी का प्रमुख कारण बनता था, और इन मशीनों को ऑपरेट करने वाले लोगो के अंतिम दिन कष्ट से भरे होते थे,

    यह इस मनोरंजन के पीछे एक कड़वी सच्चाई है, लेकिन कभी भी इन ऑपरेटर्स के लिए कोई पेंशन,सरकारी सहायता जैसी कोई निति नहीं बनी इनकी सुध किसी ने नहीं ली, आज शायद ही कोई ऐसा सिनेमाघर आस्तित्व में हो जहाँ इन पुराने प्रोजेक्टर्स से फिल्म चलती हो आज के डिजिटल ज़माने में फिल्म दिखाने की टेक्निक भी डिजिटल हो गई है,

    आज UFO-M4 जैसी सेटेलाइट आधारित ई-सिनेमा मूवी डिलीवरी करती है यह एक ऐसा डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म है जो भारत भर के फिल्म वितरकों को फिल्मों की सैटेलाइट डिलीवरी के लिए एक एंड-टू-एंड प्लेटफॉर्म प्रदान करता है जो डिजिटल सिनेमा उपकरणों का प्रयोग कर सिनेमाघरों में फिल्म प्रदर्शित करता है लेकिन वो भी क्या दौर था वो भी क्या दिन थे ,सस्ता जमाना था कुछ ही पैसो में हम अपना 3 घंटे का मनोरंजन कर आते थे,

    बॉलीवुड की यादगार फिल्में इन्ही रीलो से जुड़ी हुई है जिसे बार बार देखने को आज भी मन करता है, मुगले-ए-आजम,मधुमति,जिस देश में गंगा बहती है,आराधना,कटी पतंग,आप आए बहार आई,चलती का नाम गाड़ी,चुपके चुपके,अभिमान,जंजीर,दीवार,शोले,धर्म वीर,जय संतोषी माँ ऐसी अनगिनत फिल्मे है,

    जो हमारी यादों से जुड़ी हुई है और इन्ही पुराने प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स के आर्क लैंप से निकलकर हमारी मधुर स्मृतियों के पटल पर हमेशा के लिए छा गई सब कुछ बदल गया ना तो पहले जैसी फिल्में रही ना ही वैसे ही दर्शक ना एक्टर और ना फिल्मी हाल पिक्चर देखने का वो पहले जैसा उत्साह उन फिल्मों के साथ सिनेमा भी खत्म हो गया है,

    सेल्युलाइड फिल्मों के खत्म होने से सिनेमा अतीत बन गया है आज के मल्टीप्लेस घर जैसे एक बड़े टीवी और होम थियटर की तरह ही है इसमें वो मजा नहीं जो 70 mm के विशाल परदे पर फिल्म देखने में आता था आज का पीवीआर,INOX सिर्फ एक बड़े टेलीविजन की तरह है और जल्द ही खत्म हो जाएगा …..यही कारण है आज इन थिएटर में मैं कोई फिल्म नहीं देखना चाहता…और कोशिश रहती है कि किसी सिंगल स्क्रीन सिनेमा में ही कोई बड़ी फिल्म देंखू लेकिन अब सिंगल थिएटर बचे ही कितने है ?..

    अब वो रील और प्रोजेक्टर वाला वक़्त लौट कर नही आ सकता मोबाईल का जमाना आया और सारी खुशियां और सारी रौनक ले गया एक वो रील थी और एक reel आज मोबाइल पर है जिसमे तीन घंटे चंद लम्हों मे सिमट कर रह जाते है ………..16 mm ,35 mm फिर 70 mm सिनेमा स्कोप ,फयूजी कलर फिर ईसटमन कलर का जमाना आया …….., मोनो साऊंड ,फिर स्टीरियो फोनिक,फिर ५.१ फिरडॉल्बी अब एटमोस का जमाना आ गया ……..हमारा सुनहरा परदा बड़े से छोटा भी छोटा होकर 2D ,3D ,और IMAX में बदल गया लेकिन बालकनी के पीछे से आती प्रोजेक्टर की चर चर चर चर आवाज़ की आवाज सुनकर जो सुकून मिलता था आज के मल्टीफ्लेक्स में वो नहीं ……प्रोजेक्टर्स की यही आवाज़ सुनकर हम परदे की तरफ सजग हो जाया करते थे अब फिल्म चालू होने वाली है फिर पीछे मुड़ मुड़ कर झरोखे से आती हुई रंग बदलती रोशनी को देखना किसी सम्मोहन से कम नहीं होता था …

    प्रोजेक्टर और सिनेमा की रंग बिरंगी रील मुझे बचपन से ही बेहद आकर्षित करती रहे है ये आकर्षण मुझे हर रविवार को दिल्ली के लाल किले के पीछे लगने वाले चोर बाजार में ले जाता था जहाँ लोहे के बने हाथ से चलने वाले छोटे छोटे प्रोजेक्टर 100 -150 रुपये में बिकते थे इनके साथ कुछ मीटर रील फ्री आती थी जो अक्सर सिनेमा हाल में चलने वाले इन्ही बड़े प्रोजेक्टर की टूटी रील के टुकड़े होते थे इन रील्स स्क्रेप के ढेर में अगर कही अपनी मनपसंद फिल्म या स्टार की रील मिल जाती थी तो ऐसा लगता था मानो कोई खजाना हाथ लग गया,

    घर आकर कमरे में सफ़ेद चादर टाँग कर घुप्प अन्धेरा कर इस छोटे प्रोजेक्टर को चलाया जाता था जिसके पीछे एक नार्मल बल्ब लगा होता था चूँकि ये प्रोजेक्टर लोहे की टीन का बना होता था तो बल्ब वाला हिस्सा बल्ब की गर्मी से जल्दी गर्म हो जाता था और अक्सर हाथ भी जल जाता था लेकिन जब सफ़ेद चादर या दादा जी की पहने जाने वाली सफ़ेद लुंगी पर इस प्रोजेक्टर की रोशनी से निकले रंगीन चित्र बिना किसी साउंड के चलते हुए दिखते थे बड़े गर्व की अनुभूति होती थी आज की ये reel बनाने वाली जेनरेशन इस की कल्पना नहीं कर सकती …. ये वो असीम आनंद था जो आज के 65 इंच के 4k या HD टीवी देखने पर भी नहीं आता …..वो दिन बड़े अच्छे थे पता नहीं कहाँ चले गए ?…

    अब विडंबना देखिये जहाँ किसी फिल्म के निर्माता निर्देशक ,वितरक ,कलाकार ,फिल्म के संगीत और सेटेलाइट राइट खरीदने वाले करोडो अरबो कमाते है वही उनकी फिल्मो को दर्शको तक सुचारु रूप से पहुंचने वाले प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स अपने मूल वेतन को भी तरसते है …

    आज ये प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स बड़ी दयनीय स्थिति में है हमें सिंगल स्क्रीन सिनेमा घरो में मनोंरजन करने वाले प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स के लिए आवाज़ बुलंद करनी चाहिए और सरकार से आग्रह करना चाहिए की वो इनके लिए एक निति बनाने के साथ साथ सिंगल स्क्रीन सिनेमा घरो के सरंक्षण के लिए भी आगे आये क्योंकि ये भी हमारी धरोहर ही है ……अगर सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों को सरकार मनोरंजन कर में छूट दे तो भी इनको फायदा जरूर पहुंचेगा …

    सिंगल स्क्रीन टाकीज के प्रोजेक्टर रूम में विषम परिस्तिथियों में काम करने वाले ऑपरेटर्स को ‘सुहानी यादें बीते सुनहरे दौर की’ और से नमन…उनके कभी भी हार न मानने वाले जज्बे को सलाम …

    साभार —

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